Friday, January 23, 2009

शून्य

खुद को मिटाऊ मैं, शून्य बन जाऊ मैं, सब को समाऊ मैं अपने में
जैसे हो झरने का पानी विवर्ण ; वैसे मैं बन जाऊ सब के लिये
न भाषा का भेद हो न जाती का बैर हो न ज्ञान अज्ञान का बन्धन हो
बूंद समान स्वच्छ जलकण जैसे मिले हो उस सागर में
खुद को मिटाकर वो मिल गया सागर में, अब कहाँ रह गया जल कणिका
खुद को मिटाऊ मैं, शून्य बन जाऊ मैं, सब को समाऊ मैं सागर में ||

5 comments:

hindi-nikash.blogspot.com said...

आज आपका ब्लॉग देखा बहुत अच्छा लगा. मेरी कामना है की आपके शब्दों को नए रूप, नए अर्थ और व्यापक दृष्टि मिले जिससे वे जन-सरोकारों की सशक्त अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकें.....
कभी समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर पधारें.
http://www.hindi-nikash.blogspot.com

सादर-
आनंदकृष्ण, जबलपुर.

Udan Tashtari said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका हार्दिक स्वागत है. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाऐं.

bijnior district said...

हिंदी लिखाड़ियों की दुनिया में आपका स्वागत।खूब लिखे । अच्छा लिखे । हजारों शुभकामनांए।

रश्मि प्रभा... said...

shunya banne ki khwaahish aatma ka parmatmaa se sarokaar hai........

दिगम्बर नासवा said...

बहुत सुंदर तरीके से संजोया है शब्दों को अच्छी कविता है...............
स्वागत है आप का