Friday, January 23, 2009

शून्य

खुद को मिटाऊ मैं, शून्य बन जाऊ मैं, सब को समाऊ मैं अपने में
जैसे हो झरने का पानी विवर्ण ; वैसे मैं बन जाऊ सब के लिये
न भाषा का भेद हो न जाती का बैर हो न ज्ञान अज्ञान का बन्धन हो
बूंद समान स्वच्छ जलकण जैसे मिले हो उस सागर में
खुद को मिटाकर वो मिल गया सागर में, अब कहाँ रह गया जल कणिका
खुद को मिटाऊ मैं, शून्य बन जाऊ मैं, सब को समाऊ मैं सागर में ||