Wednesday, May 23, 2007

अपनों के बीच

लेखक. एस. हरिलाल
अपनों के बीच पराया बनकर खडा़ हूँ मैं
आँखों की नमीं को परदा बनाकर खडा़ हूँ मैं
भीड़ में अकेला महसूसकर खडा़ हूँ मैं
यादों की चादर ओढ़कर खडा़ हूँ मैं
लोग बोलने लगे अंधा है शायद गूँगा भी हो
बहरा नहीं क्यों की हमारी बातों को सुनता है वो
कानों में गूँज रही है आवाज माँ की लोरी की
दूर कहीं धुंधला नजर आता है पिता का प्यार
अंदर निःश्वास की गर्म हवा होते हुए भी
बाहर दुनिया के लिये ठंडा बनकर खडा़ हूँ मैं
कान तरसते हैं उस पुकार के इंतजार में
आँखें ढूँढ रही हैं उन ख्वाबों को बे सबर
ओठों को दातों के बीच दबाकर खडा़ हूँ मैं
प्यारे सपनों को, मेरी यादों को दफ़नाकर खडा़ हूँ मैं ॥