Tuesday, April 21, 2009

प्रेम

"अनन्त और अवर्णनीय उस अनोखा पवित्र प्रेम में कवि एवम् कविता अपूर्ण है, क्योंकि परमेश्वर प्रेम है ॥"
प्रेम
प्रेम कीजिए मत, प्रेम को अपनी फितरत बनाइए
प्रेम लीजिये मत, उसे अपना हक बनाइए
प्रेम भूलिये मत, सारे हिसाब भूल जाइए
प्रेम में ठहरिए मत, साथ चलते चले जाइए

प्रेम को ढूंढिए मत, उसे पा लीजिये
हरदम यहाँ वहाँ उस से मुलाकात कीजिये
खडा़ है आपके द्वार, उसे पहचान लीजिए
बडे़ आदर से उने मन में जगह दीजिये ॥

Friday, January 23, 2009

शून्य

खुद को मिटाऊ मैं, शून्य बन जाऊ मैं, सब को समाऊ मैं अपने में
जैसे हो झरने का पानी विवर्ण ; वैसे मैं बन जाऊ सब के लिये
न भाषा का भेद हो न जाती का बैर हो न ज्ञान अज्ञान का बन्धन हो
बूंद समान स्वच्छ जलकण जैसे मिले हो उस सागर में
खुद को मिटाकर वो मिल गया सागर में, अब कहाँ रह गया जल कणिका
खुद को मिटाऊ मैं, शून्य बन जाऊ मैं, सब को समाऊ मैं सागर में ||